जल निकायों के विविध आकार

ऐतिहासिक रूप से गर्म और मरुस्थलीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों ने पानी के भंडारण और उपयोग के लिए विभिन्न प्रकार के बड़े पैमाने पर जलाशयों का निर्माण किया है। स्थानीय विशेषताओं और सार्वजनिक, व्यक्तिगत या सामुदायिक स्तर पर अभीष्ट उपयोग हेतु जलाशयों की अलग-अलग संरचनाएं थीं । यह कहानी जल निकायों और संरचनाओं की विविधता को दर्शाती है जो मेहरानगढ़ किले के आसपास के क्षेत्र में मौजूद हैं।

झालरा

झालरा एक भूमिगत शिल्प का एक प्रकार है, जो आमतौर पर एक ऐसे स्थान पर बनाया जाता है, जहाँ नीचे पत्थर की संरचना में दरारों (पानी की झिरियों) के माध्यम से पानी भर पाता है। झालरे की चौड़ाई या लंबाई की तुलना में इसकी गहराई अधिक होती है। झालरे के तीन किनारों पर पानी तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ होती है और चौथे किनारे पर आमतौर पर पानी खींचने के लिए एक बरामदा और/या घिरनी या चरखी होती है। यह पत्थर के निर्माण और इंजीनियरिंग का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, सीढियाँ एक माप की तरह होती हैं जिसका प्रत्येक जीना मानव कंधे की ऊंचाई के बराबर होता है।

यहाँ की तस्वीर मैयला बाग झालरा को दिखाती है जिसे 18वीं शताब्दी में महाराजा विजय सिंह जी की उपस्त्री गुलाब राय ने बनवाया था । ऐसा कहा जाता है कि यह झालरा मौजूदा बावड़ी और मंदिर संरचना का विस्तार था। बाद में, इसके चारों ओर कुछ संरचनायें जोड़ दीं गयीं।

सर

सर का अर्थ है झील जिसे तालाब/नदी/सागर/समंद/बंध/कुंड के नाम से भी जाना जाता है। किसी जलग्रहण क्षेत्र को बाँध की अवधारणा पर अगर चारो तरफ से बंद कर दिया जाता है तब इनका निर्माण होता है। बाँध की ऊपरी संरचना के आधार पर, इन जल स्थलों को नाड़ी, तालाब, सागर, सर, समंद या बंध कहा जाता था।

बड़े जलग्रहण क्षेत्र वाले बड़े जल स्थलों को सागर या समंद कहा जाता था जबकि छोटों को कुंड और तालाब कहा जाता था। नाडी ग्रामीण क्षेत्रों के जल संग्रह क्षेत्र थे, जबकि पुराने और नए विकसित शहरों में बंध पाया जाता है। सर अधिकतर घने शहरों के संकरे जलग्रहण क्षेत्रों में पाया जाता है।

यहाँ की फोटो पदमसर की है जिसे मेवाड़ के राणा साँगा की बेटी रानी उत्तमदे सिसोदिनी जी ने बनवाया था। महाराजा बखत सिंह जी के शासनकाल में श्रीमाली ब्राह्मण समुदाय द्वारा तर्पण पूजन के लिए पदमसर के तटबंध को सात सीढ़ी और ऊंचा किया गया था।

सागर

सागर एक बड़े टाँके के समान जल संग्राहक शिल्प है । यहाँ सागर शब्द का सम्बन्ध मानवकृत पाल से बंधे जल-शिल्प से है । जोधपुर में, शहर के जलग्रहण क्षेत्रों से पानी के संचयन के लिए टैंकों का निर्माण किया गया था। ये टैंक विभिन्न आकार की नहरों से झीलों से जुड़े हैं । इन टाँकों को स्थानीय भाषा में सागर कहा जाता है। इन टैंकों के किनारों में चबूतरे और घाट जैसी संरचनाएं एवं सीढ़ियाँ हैं।

फोटो गुलाब सागर को दिखाती है जिसे १८४५ में गुलाब राय द्वारा निर्मित किया गया था। गुलाब सागर के निर्माण को पूरा करने में लगभग 8 साल लगे। यह आकार में १५० x ९० मीटर है और बालसमंद झील से एक नहर के माध्यम से पानी प्राप्त करता है।

बावड़ियाँ

बावड़ियों का निर्माण पहले पत्थर की साधारण चिनाई से किया जाता था और उन्हें पानी की आवश्यकतानुसार खोदा जाता था। काफी समय बाद ही शिल्पी/कारीगर विशाल पत्थर के खंडों को छैनी-हथोड़ा का उपयोग करके तराशते थे । बावड़ी सीढ़ीदार कुओं का ही एक रूप है, जहाँ आगे की सीढ़ियाँ आड़ी-तिरछी(ज़िगज़ैग) होती हैं, जो कम स्थान में एक पंक्ति में जुड़ी होती हैं। बावड़ी में आमतौर पर दो भाग होते हैं: एक ऊर्ध्वाधर शाफ्ट जिसमें से पानी खींचा जाता है और उसके आसपास नीचे जाते हुए भूमिगत मार्ग, कक्ष और सीढ़ियाँ।

यह उदाहरण तापी बावड़ी का है, जिसे पुष्कर्ण ब्राह्मण समाज के तापी नामक पंडित ने बनवाया था। इस बावड़ी का निर्माण सन १६७५ में महाराजा जसवंत सिंह जी के शासन काल में करवाया गया था। बावड़ी के आसपास रहने वाले समुदाय का मानना है कि इस बावड़ी का पानी हल्का है जो इस बावड़ी को तैरना सीखने वालों के लिए एक आदर्श जगह बनाता है।

बेरा

बेरा या कुआं सीधे भूजल का दोहन करता है और अन्य सभी जल संरचनाओं की तुलना में इसकी ऊपरी ज़मीन पर न्यूनतम संरचना दिखती है। कुएँ भूमिगत नदियों से निरंतर जल प्राप्त करते हैं। ये घरों, मंदिरों और खुले सामुदायिक स्थानों के साथ भी बनाये जाते हैं। कुओं के दो मूल हिस्से होते हैं: शाफ्ट और पानी की घिर्री। ये आम तौर पर सामुदायिक संपत्तियाँ होते हैं, जिन्हें कई परिवारों के बीच साझा किया जाता है। इनका निर्माण, रखरखाव और जल संसाधनों को साझा किया जाता है।

यहाँ प्रदर्शित जल निकाय जैता बेरा है जिसका निर्माण राव जोधा के शासनकाल के दौरान किया गया था, अर्थात यह जोधपुर की शुरुआत के समय का है। महाराजा अजीत सिंह के समय में इसका पुनर्निर्माण किया गया था।

टाँका/हौस

टाँका भूमिगत टैंक होते हैं जो रिहायशी इलाकों की छतों से बारिश के पानी को इकट्ठा करते हैं। पहली बारिश से पहले, छतों को साफ किया जाता है और पहली बारिश के दौरान पानी को अलग-अलग टोंटियों से बहने दिया जाता है। उसके बाद, सभी टोंटीयाँ बंद कर दी जाती हैं और पानी को आँगन या ईमारत के पिछले हिस्से से एक ही टोंटी से इन टैंकों में लाया जाता है। इस दौरान किसी को भी अपने जूते-चप्पल छत पर ले जाने या और तो और छत पर जाने की भी अनुमति नहीं होती। इस प्रकार पानी को प्रदूषकों से मुक्त रखा जाता है और चूने की छत से साफ़ पानी प्राप्त किया जाता है। चूने को पारंपरिक रूप से पानी साफ करने वाला माना जाता है और इसका उपयोग छतों के साथ-साथ टाँकों की अंदरूनी सतह के लिए भी किया जाता है। इन्हें मंदिरों में दैनिक अनुष्ठानों में जलोपयोग के लिए भी बनाया जाता था। इन टाँकों के पानी का उपयोग, किला हमले या युद्ध के दौरान भी कर सकता था। खेतों में सिंचाई के लिए भी ये टांके हुआ करते थे, जिनका उपयोग पीने के लिए जरूरत पड़ने पर भी किया जाता था। टाँका एक बंद वर्षाजल भंडारण प्रणाली है जबकि हौस/हौज/ हौज़ एक खुली वर्षाजल भंडारण निकाय है।

यहाँ दौलत खाना चौक के नीचे मेहरानगढ़ किले में स्थित एक भूमिगत टाँका दिखाया गया है, जिसका निर्माण सवाई राजा सूर सिंह के शासनकाल के दौरान किया गया था। कहा जाता है कि राव गंगा के समय में यहाँ पहले एक तहखाना था।